बहुत वक्त हो गया तुम्हें गये
बहुत वक़्त हो गया हैं तुम्हें गए
पर आज भी सब कुछ वैसे का वैसा ही हैं |
हर रोज़ मैं ठीक उसी जगह तुम्हारा इंतज़ार करता हूं
इसी उम्मीद में कि शायद तुम आओगी |
आंखों के सामने तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा
मुझे बार-बार यही यक़ीन दिलाता हैं
कि शायद तुम रूठी हो ,
वर्ना किसी को इंतज़ार करवाने में किसको मजा आता हैं |
मेरे आस-पास से गुजरते लोग
और ढलते सूरज की ज़िन्दगी एक ओर |
तन्हा , अकेला , शायद मेरे ही जैसे घायल होता हैं
धीरे-धीरे ये भी हर रोज़ |
नज़रें ढूंढ़ती तुम्हें
कि शायद तुम पीछे से आओगी और कहोगी ,
" ओए बुद्धू , नज़रें यहां वर्ना खींच के दूंगी दो |
यादों का वो घर
जिसमें तुम आज भी सुबह-शाम रहती हो , वीरान सा हैं |
छन-छन करती तुम्हारी पायल
और रंग-बिरंगी चूड़ियां सब शांत सा हैं |
ऐसे लगता हैं जैसे ये सब एक ख़्वाब सा हैं ,
दर्द और मेरा रिश्ता एक श्राप सा हैं |
रातें जितनी गहरी और काली होती हैं
उतनी ही रोशनी मेरे कमरे में बढ़ जाती हैं |
यकीन नहीं करोगी तुम
पर मेरी सांसें भी मुझसे छीन सी जाती हैं |
बेजान सी दीवारें चीख-चीख कर तुम्हारा नाम
ख़ून सा अपनी आंखों से बहाती हैं ,
रूह भी मेरी इनसे लिपटकर ख़ून के आंसू बहाती हैं |
दिल और दिमाग़ इस जंग से जिस्म को बार-बार बचाते हैं
पर तुम्हें भुलाने की क़ीमत भी
कहीं ना कहीं ये भी तो चुकाते हैं |



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